Parmatma Ki Prapti Ka Upay: परमात्मा की प्राप्ति का उपाय बहुत ही सरल है। संसार के प्रत्येक ऋषि, मुनि, संत, मनीषी सभी ने समर्पण को सबसे बड़े उपाय के रूप में प्रतिपादित किया है।
परमात्मा की प्राप्ति का सबसे मुख्य साधन समर्पण ही है। बहुत से उदाहरण हैं जिन्होंने समर्पण भाव से ईश्वर की शरणागत होकर अपने जीवन को कृत्य कृत्य कर लिया, क्योंकि समर्पण से जितने मानसिक विकार होते हैं वे स्वयं ही विसर्जित हो जाते हैं और मनुष्य अंतर्मुखी होकर अपनी आत्मा को, अपनों कोजान लेता है, आत्म साक्षात्कार कर लेता है।
परमात्मा की प्राप्ति करने के सबसे मुख्य साधन समर्पण को हम इस उदाहरण से समझते हैं जैसे आपने अपना रुपया मेरे पास जमा करवा दिया, अब उन रुपयों का मैं चाहे जैसे उपयोग करूं, आपको कोई तकलीफ नहीं होती। आपका तो रुपया जमा हो गया, जब आप चाहेंगे तब आपको मिल जायेगा, यह आपको अटूट विश्वास है अतः आपको किसी भी प्रकार की तकलीफ नही होती।
इसी प्रकार परमात्मा को अपना सब कुछ सौंप दो। अपना धन, शरीर, मन, बुद्धि सब कुछ परमात्मा को सौंप दो। परमात्मा को अर्पण करने के बाद तो लोहे का सोना हो जाता है, आप अपना सर्वस्व कर दें। लोहे का सोना हो जाने की बात होने पर भी लोग अर्पण क्यों नहीं करते ? क्योंकि विश्वास नहीं है।
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भगवान के काम में शरीर, धन सब खर्च कर दें, शरीर और धन से अपनापन निकाल दें। अब तक अपना समझते थे, बीमारी में सुख दुःख होता था, भगवान को सौंप दिया, अब भी उसी प्रकार ध्यान आदि करते हैं, सुख दुःख मिट गया।
राजा जनक का राज्य याज्ञवल्क्य को अर्पण हो गया फिर राजा उनके सेवक बनकर पूर्ववत कामकाज करने लगे, रोटी कपड़ा खाते पहनते हैं, हानि लाभ से अपना सम्बंध नहीं है।
दुःख सुख होते हैं, क्योंकि वास्तव में भगवान् को अर्पण नही किया, केवल कहना मात्र है। लपोडशंख की बात है, उससे कोई कहे कि दे हजार तो वह कहता ले लाख। कहना मात्र ही है देना लेना कुछ नही।
भगवान् का सेवक बनकर काम करते, चिन्ता हट गई, काम ज्यादा सावधानी से करते हैं, अपने काम में चाहें असावधानी भी हो जाती, पर मालिक के काम में असावधानी नहीं होती।
हानि लाभ में चिंता फिकर नही होती, क्योंकि मालिक का ही तो हानि लाभ है। यदि हर्ष शोक होता है तो हर्ष शोक के पेट में राग द्वेष मिलेगा, जितना उपाय है सब राग द्वेष के नाश के लिए ही है।
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अपना तन, मन, धन सब भगवान् को अर्पण कर दो, बाहर से भीतर से वास्तव में त्याग करें, यह विश्वजित यज्ञ है। इसका फल परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा की प्राप्ति अमूल्य है।
मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा बड़ी बुरी चीज है, देखने में तो अमृत के समान है, किंतु परिणाम विष के समान हैं।
मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मिलती है, उस समय तो आनन्द आता है, परंतु यह बहुत बुरी चीज है। विष का लड्डू खाते समय तो मीठा लगता है, किंतु परिणाम मृत्यु है।
यह बात युक्तियों से समझ में आकर भी क्रिया रूप में नही आ पाती, जैसे कुपथ्य करने वाला रोगी समझ बूझकर भी कुपथ्य कर लेता है। यह बात बराबर सुनता रहे, कभी न कभी लगेगी ही।
पहले तो मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा अमृत के समान लगता है, बाद में अमृत के समान लगने पर भी परिणाम में बुरी मालूम होने लगती है। रोगी समझदार हो तो जलेबी रसगुल्ला नहीं खाता, परिणाम को देखता है और आगे बढ़ने पर रस भी नहीं प्रतीत होता, अपितु मृत्यु के समान लगने लगता है, विष का लड्डू दिखने लगता है।
लोग जबरदस्ती उसको मान बड़ाई देते हैं, वह ह्रदय से नहीं चाहता, अपितु कलंक समझता है। यह समझ में आनी चाहिए, समझ में आते ही बेड़ा पार है। कोई दे तो स्वीकार न करें।
दूसरों के सुख के लिए स्वीकार करनी पड़े तो खूब सावधान रहें, कहीं अपने को सुख न हो जाए। बड़ा जोखिम का काम है। त्याग में तो लाभ ही लाभ है।
मान बड़ाई पर विजय हो गई तो संसार को जीत लिया। इससे बड़ी कोई घाटी नही है, आप परमात्मा के निकट पहुंच गए।
संसार में बड़े बड़े नेता, महात्मा हुए हैं, अगर आपने मान, बड़ाई का त्याग कर दिया तो आप उनसे भी ऊंचे चले गए। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मिले तो ह्रदय से रोयो। इतना न हो तो अपने को उससे बचाओ, वहां से भागो।
इसे प्लेग की बीमारी से भी ज्यादा समझो, भाग न सको तो लज्जित होओ। सभा में कोई धोती खोल दे तो कितनी लज्जा आए। कम से कम यह दशा तो होनी ही चाहिए, फिर वहां कोई जायेगा क्या ? यहां तो लोगों की धोती खोलते हैं।
पुष्प माला गले में डाले तो समझें कि विष्ठा डाल रहे हैं, इत्र फुलेल लगावे तो मानो पेशाब डाल रहे हैं। यह समझ में आ जाए तो फिर उन्नति होने में देर नहीं है।
श्रेय : ब्रम्हलीन परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी के प्रवचनों से संकलित।
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